bihar board class 10 history chapter 5 solution अर्थ-व्यवस्था और आजीविका

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अर्थ-व्यवस्था और आजीविका bihar board class 10 history chapter 5 solution

अर्थ-व्यवस्था और आजीविका

इकाई- 5

अर्थ-व्यवस्था और आजीविका

अभ्यास

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objcetive Questions)

 

प्रश्न

  1. स्पिनिंग जेनी का आविष्कार कब हुआ ?

(क) 1769

(ख) 1770

(ग) 1773

(घ) 1775

उत्तर– (ख) 1770

 

प्रश्न

2.सेफ्टी लैम्प का आविष्कार किसने किया?

(क) जेम्स हारग्रीब्ज

(ख) जॉन के

(ग) क्राम्पटन

(घ) हम्फ्री डेवी.

उत्तर– (घ) हम्फ्री डेवी.

 

प्रश्न

3.बम्बई में सर्वप्रथम सूती कपड़े के मिलों की स्थापना कब हुई ?

(क) 1851

(ख) 1885

(ग). 1907

(घ) 1914

उत्तर-(क) 1851

 

प्रश्न

4.1917 ई० में भारत में पहली जूट मिल किस शहर में स्थापित हुआ?

(क) कलकत्ता

(ख) दिल्ली

(ग) बम्बई

(घ)  पटना

उत्तर– (क) कलकत्ता

 

प्रश्न

  1. भारत में कोयला उद्योग का प्रारम्भ कब हुआ?

(क) 1907

(ख) 1914

(ग) 1916

(घ) 1919

उत्तर– (ख) 1914.

 

प्रश्न

  1. जमशेदजी टाटा ने टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी की स्थापना कब की?

(क) 1854

(ख) 1907

(ग) 1915

(घ) 1919

उत्तर- (ख) 1907

 

प्रश्न

  1. वैज्ञानिक समाजवाद का प्रतिपादन किसने किया?

(क) राबर्ट ओवन

(ख) लुई ब्लांक

(ग) कार्ल मार्क्स

(घ) लाला लाजपत राय

उत्तर- (ग) कार्ल मार्क्स

 

प्रश्न

  1. इंगलैंड में सभी स्त्री एवं पुरुषों को वयस्क मताधिकार कब प्राप्त हुआ?

(क) 1838

(ख) 1881

(ग) 1885

(घ) 1932

उत्तर- (ग) 1885

 

प्रश्न

  1. ‘अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन काँग्रेस’ की स्थापना कब हुई?

(क) 1848

(ख) 1881

(ग) 1885

(घ) 1920

उत्तर- (घ) 1920

 

 

प्रश्न

  1. भारत के लिए पहला फैक्ट्री एक्ट कब पारित हुआ?

(क) 1838

(ख) 1858

(ग) 1881

(घ) 1911

उत्तर- (ग) 1881

 

रिक्त स्थानों को भरें:

 

प्रश्न

1.सन् 1838 ई. में………..चार्टिस्ट आन्दोलन की शुरूआत हुई।

उत्तर- लंदन

 

प्रश्न

2.सन्…………. में मजदूर संघ अधिनियम पारित हुआ।

उत्तर- 1926

 

प्रश्न

3.न्यूनतम मजदूरी कानून, सन् ……….ई. में पारित हुआ।

उत्तर- 1948

 

प्रश्न

4.अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ की स्थापना…………….ई. में हुई।

उत्तर- 1920

 

प्रश्न

5.प्रथम फैक्ट्री एक्ट में महिलाओं एवं बच्चों की…………………एवं………………….. को निश्चित किया

उत्तर- आयु,  काम का घंटा

 

सुमेलित करें

(क) स्पिनिंग जेनी                        (क) सैम्यूल क्राम्पटन

(ख) प्लांइग शट्ल                        (ख) एडमण्ड कार्टराईट

(ग) पावर लुम                             (ग) जेम्स वॉट

(घ) वाष्प इंजन                            (घ) जॉन के

(ड.) स्पिनिंग म्यूल                        (ड.) जेम्स हारग्रीब्ज

उत्तर-

(क) स्पिनिंग जेनी                        (ड.) जेम्स हारग्रीब्ज

(ख) प्लांइग शट्ल                        (घ) जॉन के

(ग) पावर लुम                             (ख) एडमण्ड कार्टराईट

(घ) वाष्प इंजन                            (ग) जेम्स वॉट

(ड.) स्पिनिंग म्यूल                        (क) सैम्यूल क्राम्पटन

 

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (20 शब्दों में उत्तर दें)

 

प्रश्न

  1. फैक्ट्री प्रणाली के विकास के किन्ही दो करणों को बतायें |

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. बुर्जुआ वर्ग की उत्पति कैसे हुई ?

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. अठारवीं शताब्दी में भारत के मुख्य उद्योग कौन – कौन से थे ?

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. निरूद्योगीकरण से आपका क्या ताप्पर्य है ?

उत्तर-

 

प्रश्न प

  1. औद्योगिक आयोग की नियुक्ति कब हुई ? इसके क्या उद्देश्य थे ?

उत्तर-

 

लघु उत्तरीय प्रश्न (60 शब्दों में उत्तर दें)

 

प्रश्न

  1. औद्योगीकरण से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. औद्योगीकरण ने मजदूरों की आजीविका को किस तरह प्रभावित किया ?

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. स्लम पद्धति की शुरूआत कैसे हुई ?

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. नयुनतम मजदूरी कानून कब पारित हुआ और इसके क्या उद्देश्य थे?

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. कोयला एवं लौह उद्योग ने औद्योगीकरण को गति प्रदान की, कैसे ?

उत्तर-

 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (150 शब्दों में उत्तर दें)

 

प्रश्न

  1. औद्योगीकरण के कारणों का उल्लेख करें ।

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों पर प्रकाश डालें ।

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. उपनिवेशवाद से आप क्या समझते हैं? औद्योगीकरण ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया कैसे ?

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. कुटीर उद्योग के महत्व एवं उसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालें ।

उत्तर-

 

प्रश्न

  1. औद्योगीकरण ने सिर्फ आर्थिक ढाँचे को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि राजनैतिक परिवर्तन का भी मार्ग प्रशस्त किया, कैसे ?

उत्तर-

 

Book 

किसी भी राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था का मूल आधार कृषि एवं उद्योग होता है, जिस पर लोगों की आजीविका निर्भर करती है। आधुनिक युग में कृषि की तुलना में उद्योगों का महत्व बहुत अधिक बढ़ा है और देश की अर्थव्यवस्था में इनके योगदान में भी समानुपातिक वृद्धि हुई है। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन विश्व का पहला देश बना, जहाँ कृषि क्षेत्र एवं उद्योग जगत में मशीनीकरण प्रारंभ हुआ और औद्योगीकरण के ण के एक नये युग नये युग का सूत्रपात हुआ।

औद्योगीकरण अथवा उद्योगों की वृहत रूप में स्थापना उस औद्योगिक क्रांति की देन है, जिसमें वस्तुओं का उत्पादन मानव श्रम के द्वारा न होकर मशीनों के द्वारा होता है। इसमें उत्पादन वृहत पैमाने पर होता है और जिसकी खपत के लिए बड़े बाजार की आवश्यकता होती है। किसी भी देश के आधुनिकीकरण का एक प्रेरक तत्व उसका औद्योगीकरण होता है। नये-नये मशीनों का आविष्कार एवं तकनीकि विकास पर ही औद्योगीकरण निर्भर करता है। इसके प्रेरक तत्व के रूप में मशीनों के अलावे पूँजी निवेश एवं श्रम का भी महत्वपूर्ण स्थान है। साधारणतया औधोगीकरण ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें उत्पादन मशीनों द्वारा कारखानों में होता है। इस प्रक्रिया के तहत ही ब्रिटेन में सर्वप्रथम घरेलू उत्पादन पद्धति का स्थान कारखाना पद्धति ने ले लिया।

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              कुटीर उद्योग का चित्र                                                                कारखानें में मशीनी उद्योग का चित्र

सन् 1750 ई० तक ब्रिटेन मुख्य रूप से कृषि प्रधान देश था। देश की 80% जनसंख्या गाँवों में निवास करती थी। अपना और अपने आश्रितों का भरण-पोषण वह कृषि द्वारा करती थी। सूत उद्योग, ऊन उद्योग, काँच, लोहा और मिट्टी के बर्तन का उद्योग गाँवों में कृषकों द्वारा किया जाता था। इन उद्योगों में काम करने वाले कारीगर अपने हाथ से अथवा हाथ से चलाये जानेवाले यंत्रों से वस्तुओं का उत्पादन करते थे। इन उद्योगों में प्रमुख कपड़ा उद्योग था। यूरोप के अन्य देशों के साथ-साथ ब्रिटेन में भी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन होता था, जो प्रायः घरों में मानव चालित यंत्रों के द्वारा होता था। सतरहवीं अठारहवीं शताब्दी में शहरों में गिल्ड प्रथा का प्रचलन था। गिल्ड से जुड़े उत्पादक निपुणता एवं विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध थे। उनका व्यापार पर एकाधिपत्य था। अतः बढ़ती हुई मांगों की वजह से ये व्यापारी गाँवों की तरफ रूख करने लगे। उन्होंने गाँव के किसानों एवं मजदूरों से काम लेना शुरू किया। उन्हें प्रशिक्षण देकर वे अपने नियंत्रण में रखने लगे। उत्पादित वस्तुओं की बढ़ती हुई मांगों ने गाँवों में भी रोजगार के अवसर प्रदान किए और कुटीर उद्योग का बहुत अधिक विकास हुआ, जिसमें पुरूषों के साथ महिलाओं एवं बच्चों की भी भागीदारी बढ़ी। ब्रिटेन के गाँवों में रंगाई एवं छपाई का काम भी होता था। इसके बाद उसका निर्यात उपनिवेशों के बाजार में कर दिया जाता था। इस तरह औद्योगीकरण, जिसमें उत्पादन का मशीनीकरण हुआ, के पहले भी औद्योगिक विकास का दौर जारी था, जिसमें घरों में मानव श्रम से कुटीर उद्योग के द्वारा उत्पादन किया जाता था और कुटीर उद्योग विकासोन्मुख था। यह दौर आदि-औद्योगीकरण (Proto Industrialisation) के नाम से जाना जाता है।

औद्योगीकरण के कारण: ब्रिटेन में स्वतंत्र व्यापार (Free Trade) और अहस्तक्षेप की नीति (Policy of Lasissez faire) ने ब्रिटिश व्यापार को बहुत अधि क विकसित किया। उत्पादित वस्तुओं की मांग बढ़ने लगी। तात्कालिक ढाँचे के अन्तर्गत व्यापारियों के लिए उत्पादन में अधिक वृद्धि कर पाना असम्भव सा था। एक तरफ बुनकरों को धागे के अभाव में काफी समय तक बेकार बैठे रहना पड़ता था तो दूसरी तरफ सूत कातने वाले हमेशा ही व्यस्त रहते थे। पूरे समय करने वाला एक बुनकर 6 सूत कातने वाले लोगों द्वारा तैयार किए गए धागों का उपयोग कर सकता था। ऐसी स्थिति में ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, जिससे सूत का उत्पादन काफी बढ़ सके। यही वह सबसे प्रमुख कारण था, जिसकी वजहसे ब्रिटेन में औद्योगीकरण के आरम्भिक वर्षों में आविष्कारों की जो एक श्रृंखला बनी, वह सूती वस्त्र उद्योग के क्षेत्र से अधिक सम्बंधित थी।

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन में नये-नये यंत्रों एवं मशीनों के आविष्कार ने उद्योग जगत में ऐसी क्रांति का सूत्रपात किया, जिससे औद्योगीकरण एवं उपनिवेशवाद दोनों का मार्ग प्रशस्त हुआ। सन् 1769 में बॉल्टन निवासी रिचर्ड आर्कराइट ने सूत कातने की स्पिनिंग फ्रेम (Spinning Frame) नामक एक मशीन लंदन बनाई जो जलशक्ति से चलती थी। सन् 1770 में स्टैंडहील निवासी जेम्स हारग्रीब्ज ने सूत काटने की एक अलग मशीन ‘स्पिनिंग जेनी’ (Spinning Jenny) बनाई। इसमें सोलह तकुए एक पहिये के घूमने से चलते थे, अतः इसकी सहायता से आठ सूत एक साथ काता जा सकता था। सन् 1773 में लंकाशायर के जॉन के ने ‘फ्लाइंग शट्ल’ (Flying Shuttle) का आविष्कार किया, जिसके द्वारा जुलाहे बड़ी तेजी से काम करने लगे और धागे की मांग बढ़ गयी। सन् 1779 में सैम्यूल क्राम्पटन ने ‘स्पिनिंग म्यूल’ (Spinning Mule) बनाया, जिससे बारीक सूत काता जा सकता था। सन् 1785 में एडमंड कार्टराइट ने वाष्प से चलने वाला ‘पावरलुम’ (Power-Loom) नामक करघा तैयार किया। इसी समय बेनर नामक व्यक्ति ने कपड़ा छापने का एक यंत्र बनाया। टॉमस बेल के ‘बेलनाकार छपाई’ (Cylindrical Printing) के आविष्कार ने तो सूती वस्त्रों की रंगाई एवं छपाई में नई क्रांति ला दी। इन आविष्कारों के फलस्वरूप सन् 1820 ई० तक ब्रिटिश सूती वस्त्र उद्योग में काफी वृद्धि हुई। इन उद्योगों में सन् 1769 में जेम्स वॉट द्वारा बनाये गये वाष्प इंजन की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।

कारण-

1.आवश्यकता आविष्कार की जननी

2. नये-नये मशीनों का आविष्कार

3.कोयले एवं लोहे की प्रचुरता

4.फैक्ट्री प्रणाली की शुरूआत

5.सस्ते श्रम की उपलब्धता

6.यातायाता की सुविधा

7.विशाल औपनिवेशक स्थिति

 

 मानचित्र-ब्रिटेन में सूती वस्त्रों के उत्पादन क्षेत्र

चूँकि वस्त्र उद्योग की प्रगति कोयले एवं लोहे के उद्योग पर बहुत अधिक निर्भर करती है, इसलिए अंग्रेजों ने इन उद्योगों पर बहुत अधिक ध्यान दिया। ब्रिटेन में कोयले एवं लोहे की खानें थी। वाष्प इंजन बनने के बाद अपने देश के लिए तथा निर्यात करने के लिए रेलवे इंजन तैयार होने लगे। सन् 1815 में हम्फ्रीडेवी ने खानों में काम करने लिए एक ‘सेफ्टी लैम्प’ (Safety- Lamp) का आविष्कार किया। इसी तरह सन् 1815 ई० में हेनरी बेसेमर ने एक शक्तिशाली भट्टी विकसित करके लौह उद्योग को और भी बढ़ावा दिया।

मशीनों एवं नये-नये यंत्रों के आविष्कार ने फैक्ट्री प्रणाली को विकसित किया, फलस्वरूप उद्योग तथा व्यापार के नये-नये केन्द्रों का जन्म हुआ। लिवरपुल में स्थित लंकाशायर सूती वस्त्र उद्योग का केन्द्र बनाया गया। मैनचेस्टर भी सूती वस्त्र उद्योग का बड़ा केन्द्र बना। सन् 1805 के बाद न्यू साउथ वेल्स ऊन उत्पादन का केन्द्र बना और बड़े-बड़े भेड़ फामाँ की स्थापना हुई। रेशम उद्योग तथा सन् उद्योग (Linen Industry) का भी ब्रिटेन में बहुत विकास हुआ।

औद्योगीकरण में ब्रिटेन में सस्ते श्रम की आवश्यकता की भूमिका भी अग्रणी रही है। अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में बाड़ाबन्दी प्रथा की शुरूआत हुई, जिसमें जमींदारों ने छोटे-छोटे खेतों को खरीदकर बड़े-बड़े फार्म स्थापित कर लिए। अपनी जमीन बेच देने वाले छोटे किसान भूमिहीन मजदूर बन गए। ये आजीविका उपार्जन के लिए काम धंधों की खोज में निकटवर्ती शहर चले गए। इस तरह मशीनों द्वारा फैक्ट्री में काम करने के लिए असंख्य मजूदर कम मजदूरी पर भी तैयार हो जाते थे। सस्ते श्रम ने उत्पादन के क्षेत्र में सहायता पहुँचाई।

फैक्ट्री में उत्पादित वस्तुओं को एक जगह से दूसरे जगह पर ले जाने तथा कच्चा माल को फैक्ट्री तक लाने के लिए ब्रिटेन में यातायात की अच्छी सुविधा उपलब्ध थी। रेलमार्ग शुरू होने से पहले नदियों एवं समुद्र के रास्ते व्यापार होता था। नदी पोतों द्वारा लाया जाने वाला माल सरलतापूर्वक तटपोतों (Coaster) अर्थात समुद्री जहाजों तक ले जाया जाता था। जहाजरानी उद्योग में यह विश्व में अग्रणी देश था और सभी देशों के सामानों का आयात निर्यात मुख्यतया ब्रिटेन के व्यापारिक जहाजी बेड़े से ही होता था, जिसका आर्थिक लाभ औद्योगीकरण की गति को तीव्र करने में सहायक बना।

[IMAGEमानचित्र ब्रिटेन में लोहा एवं कोयला उत्पादक क्षेत्र]

औद्योगीकरण की दिशा में ब्रिटेन द्वारा स्थापित विशाल उपनिवेशों ने भी योगदान दिया। इन उपनिवेशों से कच्चा माल सस्ते दामों में प्राप्त करना तथा उत्पादित वस्तुओं को वहाँ के बाजारों में मंहगे दामों पर बेचना ब्रिटेन के लिए आसान था।

उपनिवेशवाद : मशीनों के आविष्कार तथा फैक्ट्रियों की स्थापना से उत्पादन में काफी वृद्धि हुई। उत्पादित वस्तुओं की खपत के लिए ब्रिटेन तथा आगे चलकर यूरोप के अन्य देशों को, जहाँ कारखानों की स्थापना हो चुकी थी, बाजार की आवश्यकता पड़ी। इससे उपनिवेशवाद को बढ़ावा मिला। इसी क्रम में भारत ब्रिटेन के एक विशाल उपनिवेश के रूप में उभरा। संसाधन की प्रचुरता ने उन्हें भारत की तरफ व्यापार करने के लिए आकर्षित किया। भारत सिर्फ प्राकृतिक एवं कृत्रिम संसाधनों में ही सम्पन्न नहीं था, बल्कि यह उनका एक वृहत् बाजार भी साबित हुआ।

अठारहवीं शताब्दी तक भारतीय उद्योग विश्व में सबसे अधिक विकसित थे। भारत विश्व का सबसे बड़ा कार्यशाला था, जो बहुत ही सुन्दर एवं उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करता था। जब तक मशीनों का आविष्कार नहीं हुआ था, भारतीय हस्तकला, शिल्प उद्योग तथा व्यापार पर ब्रिटिश नियंत्रण कायम था। शिल्पकारों को दी जाने वाली मजदूरी इतनी कम होती थी कि कई बार उन्हें न्यूनतम जीवन निर्वाह योग्य मजदूरी भी नहीं दी जाती थी। अंग्रेज व्यापारी एजेंट की मदद से यहाँ के कारीगरों को पेशगी रकम देकर उनसे उत्पादन करवाते थे। ये एजेंट ‘गुमाश्ता’ कहलाते थे। ये गुमाश्ता शिल्पकारों से सामान भी मनमाने दामों पर खरीदते थे और उनका निर्यात इंगलैंड करते थे। सन् 1813 ई० में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘चार्टर एक्ट’ (Charter Act) व्यापार पर से इस्ट इंडिया कम्पनी का एकाधिपत्य समाप्त कर दिया और स्वतंत्र व्यापार की नीति (Policy of Free Trade) का मार्ग प्रशस्त किया गया।

सन् 1850 ई० के बाद ब्रिटिश सरकार ने अपने उद्योगों को विकसित करने के लिए अनेक ऐसे कदम उठाए, जिनकी वजह से इस अवधि में एक के बाद एक देशी उद्योग लगातार खत्म होने लगे। ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गयी मुक्त व्यापार की नीति की वजह से भारत में निर्मित वस्तुओं पर ब्रिटेन में ब्रिकी के लिए भारी कर लगा दिया गया। भारत से कच्चा माल का निर्यात किया जाने लगा। भारतीय वस्तुओं के निर्यात पर सीमा शुल्क और परिवहन कर भी लगाया जाने लगा। अब भारत में रहने वाले अंग्रेजों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की गयीं तथा यहाँ आयात – निर्यात की सुविधा के लिए रेलवे का निर्माण किया गया। धीरे-धीरे ब्रिटिश पूँजी से भारत में कारखानों की स्थापना की जाने लगी। सूती वस्त्रों का आयात भी किया जाने लगा। सन् 1850 के बाद मैनचेस्टर से भारी मात्रा में वस्त्र आयात शुरू हो गया था। भारत में अब कुटीर उद्योग के शिल्पकारों एवं कास्तकारों को कच्चा माल के लाले पड़ गये। उन्हें मनमानी कीमत पर कच्चा माल खरीदना पड़ता था। अतः धीरे-धीरे कुटीर उद्योग बन्द कर ये शिल्पकार एवं कारीगर खेती करने को मजबुर हो गये। 1850 के बाद जब भारत में कारखानों की स्थापना होनी शुरू हुई तब यही बेरोजगार लोग गाँवों से शहरों की तरफ पलायन कर गए, जहाँ उन्हें मजदूर के रूप में रख लिया जाता था । एक तरफ जहाँ मशीनों के अविष्कार ने उद्योग एवं उत्पादन में वृद्धि कर औद्यौगीकरण की प्रक्रिया की शुरूआत की थी, वहीं भारत में कुटीर उद्योग बन्द होने की कगार पर पहुँच गया था। भारतीय इतिहासकारों ने इसे भारत के उद्योग के लिए निरूद्योगीकरण ( Deindustrialisatian ) की संज्ञा दी है।

भारत में फैक्ट्रियों की स्थापना

औद्योगिक उत्पादन से भारत में कुटीर उद्योग तो बन्द हो गए, लेकिन वस्त्र उद्योग के लिए कई बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ देशी एवं विदेशी पूँजी लगाकर खोली गयीं, जिससे कारखाना उद्योग को बढ़ावा मिला । कारखानों की स्थापना के क्रम में सन् 1830-40 के दशक में बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर ने 6 संयुक्त उद्यम कपनियाँ लगा ली थी। सर्वप्रथम सूती कपड़े की मिल की नींव 1851 ई० में बम्बई में डाली गयी। यहाँ पारसी, गुजराती और बोहरा मुसलमान आदि जातियों के लोग सूती धागे और सूती कपड़ा तैयार करने वाले आधुनिक कारखाने के निर्माण में लग गए थे। पारसी कावस-जी-नाना-जी-दाभार ने सन् 1854 में पहला कारखाना निर्मित किया और तभी से इस उद्योग का इतिहास भारत में शुरू हुआ ।

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          बम्बई कपड़ा मिल का चित्र

सन् 1854 से 1880 तक तीस कारखानों का निर्माण हुआ, जिसमें तेरह पारसियों द्वारा बनाए गए थे । सन् 1869 में स्वेज नहर के खुल जाने से बम्बई के बन्दरगाह पर इंगलैंड से आने वाला सूती कपड़ों का आयात बढ़ने लगा । इसके वावजुद भी सन् 1880 से 1895 तक सूती कपड़ों के मिलों की संख्या उनचालिस से अधिक हो गई। इसने मैनचस्टर के कपड़ा उद्योग को चिंता में डाल दिया, जिसकी वजह से ब्रिटिश सरकार वहाँ से आयात किए जाने वाले माल पर से आयात शुल्क समाप्त कर दिया। इससे भारतीय बाजारों में वहाँ का सामान अपेक्षाकृत कम मूल्यों में बिकने लगा। इस समय सस्ता मशीनों का आयात करके भारत में सूती वस्त्र उद्योग को बहुत बढ़ाया गया। सन् 1895 से 1914 तक के बीच सूती मिलों की संख्या 144 तक पहुँच गयी थी और भारतीय सूती धागे का निर्यात चीन को होने लगा था।

सन् 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल एक मारवाड़ी व्यवसायी हुकुम चंद ने स्थापित किया। सन् 1918 में पहले पहल एक लिमिटेड कम्पनी के रूप में विड़ला ब्रदर्स की स्थापना हुई। सन् 1919 में बिड़ला जूट कम्पनी और 1920 में ग्वालियर में जियाजी राव सूती कारखाना खुला । घनश्याम दास विड़ला ने अंग्रेजी-कम्पनियों से अनेक चालू कारखाने खरीदकर अपने व्यापार को बढ़ाया, जैसे-एंडविल से केशवराव कॉटन मिल और मार्टिन से चीनी के कारखाने ।

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         घनश्याम दास बिड़ला

सन् 1907 ई० में जमशेद जी टाटा ने बिहार नामक स्थान पर टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी (Tisco) की स्थापना की। जमशेद जी टाटा एक ऐसे भारतीय थे, जिनमें भारतीय उद्योग की काफी सूझ-बूझ थी और 1910 ई० में उन्होंने टाटा हाइड्रो-इलेक्ट्रीक पावर स्टेशन की स्थापना की । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् लौह उद्योग ने काफी प्रगति की । 1955 में भिलाई, राउर केला और दुर्गापुर में इस्पात कारखाना खोलने की सहमति रूस, पश्चिम जर्मनी और ब्रिटेन के समझौतों के आधार पर ली गयी। अभी भारत में 7 स्टील प्लांट हैं।

  1. इंडियन-आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, हीरापुर
  2. टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, जमशेदपुर
  3. विशेश्वरैया आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, भद्रावती (कर्नाटक)
  4. राउरकेला स्टील प्लाट, राउरकेला
  5. भिलाई स्टील प्लांट, भिलाई
  6. दुर्गापुर स्टील प्लांट, दुर्गापुर
  7. बोकारो स्टील प्लांट, बोकारो

 

 

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                 जमशेद जी टाटा
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                                            Tisco का फोटो

भारत में कोयला उद्योग का प्रारम्भ सन् 1814 में हुआ, जब रानीगंज, पश्चिम बंगाल में कोयले की खुदाई का काम प्रारम्भ किया गया था। रेल के विकास के साथ ही सन् 1853 के बाद इसका विकास आरम्भ हुआ। इसका उत्पादन बढ़ाने के लिए मशीनों का प्रयोग शुरू हुआ। नवीन उद्योग की स्थापना ने कायेले की मांग बढ़ा दी। 1868 ई० में जहाँ उत्पादन 5 लाख टन था, वहाँ 1950 में बढ़कर 3.23 करोड़ टन हो गया। तत्कालीन बिहार इस उद्योग का मुख्य केन्द्र था।

सन् 1850-60 के पश्चात भारत में बागीचा उद्योग अर्थात नील, चाय, कॉफी, रबड़ और पटसन मिलें आरम्भ हो गयीं। यद्यपि इन उद्योगों में से अधिक संख्या उन उद्योगपतियों की थी, जो विदेशी थे और जिन्हें सरकार का प्रोत्साहन प्राप्त था। सन् 1916 में सरकार ने एक औद्योगिक आयोग नियुक्त किया ताकि वह भारतीय उद्योग तथा व्यापार के भारतीय वित्त से सम्बंधित प्रयत्नों के लिए उन क्षेत्रों का पता लगाये जिसे सरकार सहायता दे सके। सन् 1921 में सरकार ने एक राजस्व आयोग नियुक्त किया और उस वर्ष उसके प्रधान श्री इब्राहिम रहिमतुल्ला बनाये गए। इसके तहत 1924 ई० में टीन उद्योग, कागज उद्योग, केमिकल उद्योग, चीनी उद्योग, आदि की स्थापना हुई। 1930 के दशक में सीमेंट और शीशा उद्योग की भी स्थापना हुई।

सन् 1850 से 1914 तक के उद्योग की यह विशेषता थी कि इस काल में निर्यात किए जाने वाले ऐसे मालों का भी उत्पादन हुआ, जो राष्ट्र के लिए लाभदायक था, जैसे-पटसन और चाय। इसके साथ ही उस माल का भी उत्पादन हुआ जिसमें विदेशी प्रतिद्वन्दिता ज्यादा नहीं थी जैसे-मोटा कपड़ा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय उद्योगों को लाभ हुआ और देशी उत्पादित वस्तुओं को देश के अन्दर एवं बाहर मंडी प्राप्त हुई, युद्ध के ठेके मिले, कच्चा माल पहले से कम दाम पर उपलब्ध हुआ और उत्पादित माल के ऊँचे दाम प्राप्त हुए।

सन् 1929-33 के विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का भारतीय उद्योग पर गहरा प्रभाव पड़ा । भारत प्राथमिक सामग्री के लिए आत्म निर्भर था, जिसका मूल्य घटकर आधा हो गया था। निर्यात किए जाने वाले सामानों का भी मूल्य घट गया। इस तरह उद्योग पर निर्भर जनता की दिनों दिन क्षति होने लगी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय मिलों द्वारा उत्पादित सूती कपड़ों की सम्पूर्ण मांग को अब भारतीय मिलें ही पूरा कर रही थीं। भारतीय मिल मालिकों ने इस अवसर का लाभ उठाया और विदेशी मंडियो में प्रवेश करना शुरू कर दिया। लड़ाई के दौरान भारत की अपनी कोई इंजिनियरिंग इन्डस्ट्री नहीं थी और न ही अपने मशीनों या यंत्रों के निर्माण करने की इन्डस्ट्री (उद्योग) थी। केवल वे उद्योग की स्थापित हो सके थे जो ब्रिटेन या अमेरिका में बनाई जाने वाली मशीनों का गठन करते थे।

द्वितीय विश्वयुद्ध अमेरिका भारत के व्यापार का एक मुख्य साझेदार हो गया। वह भारत को अब उपयोगी सामान देने लगा और भारत से कच्चा माल मंगाने लगा। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि युद्ध के समय वहाँ की उत्पादन क्षमता में काफी वृद्धि हुई थी।

प्रथम विश्वयुद्ध के पहले तक यूरोप की कंपनियां व्यापार में पूँजी लगाती थी। यह प्रबंधकीय ऐजेंसियों के द्वारा होता था, जो उद्योगों पर नियंत्रण भी रखती थी। इनमें बर्ड हिगलर्स एण्ड कम्पनी, एंड्रयूयूल और जार्डीन स्किनर एण्ड कम्पनी, सबसे बड़ी कंपिनियां थीं। यद्यपि, भारत में 1895 में पंजाब नेशनल बैंक, 1906 में बैंक ऑफ इंडिया, 1907 में इंडियन बैंक, 1911 में सेन्ट्रल बैंक, 1913 में द बैंक ऑफ मैसूर तथा ज्वाइंट स्टॉक बैंकों की स्थापना हुई। ये बैंक भारतीय उद्योगों के विकास में सहायक थे।

औद्योगीकरण का परिणाम : सन् 1850 से 1950 ई० के बीच भारत में वस्त्र उद्योग, लौह उद्योग, सीमेन्ट उद्योग, कोयला उद्योग जैसे कई उद्योगों का विकास हुआ। जमशेदपुर, सिन्द्री, धनबाद तथा डालमियानगर आदि नये व्यापारिक नगर तत्कालीन बिहार राज्य में कायम हुए। बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों के कायम हो जाने से प्राचीन गृह उद्योग का पतन आरम्भ हो गया। हाथ से तैयार किया हुआ माल मंहगा पड़ने लगा, उसकी बिक्री खत्म होने लगी, नतीजा यह हुआ कि प्राचीन उद्योगों का लोप होने लगा। आजाद भारत में इन कलाकृतियों को पुनः प्रचलित करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं, जिसके मुख्य केंद्र आगरा, बनारस अहमदाबाद,  सूरत, राजपुताना आदि के कुछ शहर हैं।

औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप इग्लैंड में हा हाथ के करघे से काम करने वाले पुराने बुनकरों के तबाही के साथ-साथ नये मशीनों का आविष्कार हुआ था। लेकिन भारत में लाखों शिल्पियों एवं कारीगरों की तबाही के साथ-साथ विकल्प के रूप में उस स्तर के किसी नये उद्योग का विकास नहीं हुआ । ढाका, मुर्शिदाबाद, सूरत आदि पर औद्योगीकरण का बुरा प्रभाव पड़ा। उनके शिल्पी एवं कारीगरों ने खेती को अपनी आजीविका का सहारा बनाया। इस प्रकार भारत में जो कृषि एवं उद्योग का संतुलन था, वह नष्ट हो गया ।

औद्योगीकरण के परिणाम स्वरूप बड़े पैमाने पर उत्पादन होना शुरू हुआ, जिसकी खपत के लिए यूरोप में उपनिवेशों की होड़ शुरू हो गयी और आगे चलकर इस उपनिवेशवाद ने साम्राज्यवाद का रूप ले लिया। उपनिवेशवाद में जहाँ एक तरफ तकनीक रूप से कमजोर देश पर आर्थिक नियंत्रण स्थापित किया जाता है वहीं साम्राज्यवाद में आर्थिक और राजनैतिक दोनों तरह के नियंत्रण स्थापित हो जाते हैं।

औद्योगीकरण के फलस्वरूप ब्रिटिश सहयोग से भारत के उद्योग में पूँजी लगाने वाले उद्योगपति पूँजीपति बन गये। अतः समाज में तीन वर्गों का उदय हुआ पूँजीपति वर्ग बुर्जुआ वर्ग (मध्यम वर्ग) एवं मजदूर वर्ग। आगे चलकर यही बुर्जुआ वर्ग भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में अंग्रेजों की औपनिवेशिक एवं शोषण की नीति के खिलाफ सक्रिय भूमिका निभाया ।

औद्योगीकरण ने एक नये तरह के मजदूर वर्ग को जन्म दिया। यद्धपि भारत में मजदूर 1850 ई० से पहले चाय, कॉफी और रबड़ आदि के बगानों में काम करते थे, लेकिन जब भारत में विभिन्न उद्योग लगे तो फैक्ट्री मजदूर वर्ग का जन्म हुआ, जिनका जीवन स्तर काफी निम्न होता था और जिनका शोषण उद्योगपतियों के द्वारा किया जाता था ।

औद्योगीकरण ने स्लम पद्धति की शुरूआत की। मजदूर शहर में छोटे-छोटे घरों में, जहाँ किसी तरह की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, रहने को वाध्य थे। आगे चलकर उत्पादन के उचित वितरण के लिए ये अंदोलन शुरू किए। चूँकि पूँजीपतियों द्वारा उनका बुरी तरह शोषण किया जाता था, इसलिए उन्होंने अपना संगठन बनाकर पूँजीपतियों के खिलाफ वर्ग संघर्ष की शुरूआत की ।

परिणाम

  1. नगरों का विकास ।
  2. कुटीर उद्योग का पतन ।
  3. साम्राज्यवाद का विकास ।
  4. समाज में वर्ग विभाजन एवं बुर्जआ वर्ग का उदय ।
  5. फैक्ट्री मजदूर वर्ग का जन्म ।
  6. स्लम पद्धति की शुरूआत ।

मजदूरों की आजीविका

औद्योगीकरण ने नई फैक्ट्री प्रणाली को जन्म दिया, जिससे गृह उद्योगों के मालिक अब मजदूर बन गए, जिनकी आजीविका बड़े-बड़े उद्योगपतियों द्वारा प्राप्त वेतन पर निर्भर करता था। औरतों एवं बच्चों से भी 16 से 18 घंटे काम लिए जाते थे। उस समय इंगलैंड में कानून मिल मालिकों के पक्ष में थे। मजदूरों की लाचारी यह थी कि वे अपने गृह उद्योग की तरफ लौट नहीं सकते थे, क्योंकि कल पूर्जा एवं मशीनों के आगे साधारण गृह उद्योग का फिर से विकसित होना असम्भव था । अतः इन मजदूरों के मन में उत्तरोत्तर यह भावना दृढ़ होती गयी कि ये नये कारखाने उनके प्रबल शत्रु हैं। चूँकि इन्हीं कारखानों ने उन्हें बेरोजगार कर दिया था। जिन कारीगरों को नौकरी फैक्ट्रियों में मिल भी गयी उनका जीवन कष्टमय ही था। अतः इन मजदूरों एवं बेरोजगार कारीगरों ने झुण्ड बनाकर घूमना शुरू किया और मशीनों को तोड़ने लग गए। यूरोप में ऊन कातने वाली महिलाओं ने भी मशीनों पर प्रहार किया। कई जगहों पर मशीनों को चौराहे पर लाकर उनमें आग भी लगा दी गई।

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                बेघर मजदूरों की स्थिति

औद्योगीकरण ने मजदूरों की आजीविका को इस तरह नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था कि उनके पास दैनिक उपभोग के पदार्थों को खरीदने के लिए धन नहीं रहा। अतः मजदूरों ने आंदोलन का रूख लिया। सन् 1830 से 1848 के मध्य मजदूरों ने संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए लंदन में आंदोलन किया। यद्यपि 1832 ई० में ‘सुधार अधिनियम’ पारित हुआ, लेकिन श्रमिकों को इससे कोई लाभ नहीं हुआ, यहाँ तक कि उन्हें मतदान का भी अधिकार प्राप्त नहीं हुआ। अतः लंदन श्रमिक संघ (London Working Men’s Association) के नेतृत्व में सन् 1838 में मजदूरों ने ‘चार्टिस्ट आंदोलन’ की शुरूआत की। इस आंदोलन को मजदूरों का पहला संगठित आंदोलन कहा जा सकता है। उस काल में, यद्यपि, इस आंदोलन को सफलता नहीं मिली, परन्तु आगे चलकर इसे इतनी अधिक लोकप्रियता हासिल हुई कि स्वयं संसद के सदस्यों को मजदूरों की मांगों की पूर्ति के लिए प्रयास करने पड़े। सन् 1918 में इंगलैंड के सभी स्त्री-पुरुष, जो वयस्क थे, को मताधिकार प्रदान किया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहाँ मजदूर दल की सरकार बनी, जिसने उनके हितों की रक्षा करनी शुरू कर दी।

भारत में 1850 ई० के बाद का काल भारतीय श्रमिक वर्ग का आरम्भिक काल था। भारत में उद्योगों की स्थापना से मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई। आगे चलकर भारतीय श्रमिक वर्ग को कम मजदूरी, लंबे कार्य के घंटे, मिलों में अस्वस्थ वातावरण, बच्चों से काम लेना तथा महिलाओं को न्यूनतम मजदूरी नहीं देना साथ ही सामान्य सुविधाओं को भी उपलब्ध नहीं कराने की समस्या को झेलना पड़ता था। इसके अतिरिक्त शासन के उत्पीड़न से भी भारतीय मजदूरों को क्षोभ उत्पन्न होने लगा था। अतः उन्होंने मिल मालिकों एवं औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ आन्दोलन की योजना बनानी शुरू कर दी। इस कार्य में लंकाशायर के कपड़ा मिल के मालिकों ने भारतीय मजदूरों का साथ दिया और उनकी स्थिति में सुधार की मांग ब्रिटिश सरकार से की। चूँकि उन्हें डर था कि सस्ती मजदूरी होने के कारण भारत का उद्योग उनका प्रतिद्वन्दी न बन जाये। सन् 1875 में उनकी मांगों के आधार पर एक आयोग नियुक्त हुआ, जिसके प्रतिवेदन के आधार पर सन् 1881 में पहला ‘फैक्ट्री एक्ट’ पारित हुआ। इसके द्वारा 7 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखाने में कार्य करने पर प्रतिबन्ध लगाया गया, 12 वर्ष कम आयु के बच्चों के काम का घंटा तय किया गया तथा महिलाओं के भी काम के घंटे तथा मजदूरी को निश्चित किया गया।

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                 कताई करती महिला का चित्र

फिर भी मजदूरों का असंतोष तब दिखाई पड़ा जब 1882 और 1890 के बीच मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों में 25 हड़तालें दर्ज की गयीं। ये मजदूर असंगठित थे, जो गाँव से आये थे और कुछ समय तक उद्योग में लगकर अपनी स्थिति में सुधार लाना चाहते थे। सुधार नहीं आने की स्थिति में ये कारखाना छोड़कर वापिस लौट जाते थे।

धीरे-धीरे ये असंगठित मजदूर राष्ट्रीय स्तर पर अपना संगठन बनाना शुरू कर दिए। 31 अक्टूबर 1920 ई० को ‘अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ (AITUC) की स्थापना की गयी और लाला लाजपत राय उसके प्रधान बनाये गये। सन् 1920 में ही अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ (ILO) के गठन से श्रमिकों की समस्याओं को अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका मिल गयी।

सन् 1926 में ‘मजदूर संघ अधिनियम’ (Trade Union Act) पारित हुआ, जिसके द्वारा पंजीकृत मजदूर संघों को मान्यता प्रदान की गयी। सन् 1929 के घोर मंदी में हड़तालों द्वारा न तो मजदूरी को ही गिरने से रोका जा सका और न ही श्रमिकों को छंटनी से रोका जा सका। इस काल में मजदूर संघों में फूट पड़ गयी। इसी समय भारत में राष्ट्रीय आंदोलन जोरों पर था। साम्यवाद की लहर रूस से भारत की तरफ आ गयी थी और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भी सक्रिय भूमिका की शुरूआत हो गयी थी। मजदूर वर्ग के लोग उनके साथ राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गये, क्योंकि साम्यवादी मजदूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक भूमिका पर बल देते थे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बम्बई, कानपुर, कलकत्ता, डिगबोई, झरिया, जमशेदपुर और धनबाद में मजदूरों ने मंहगाई भत्ते को लेकर हड़ताल किया। सन् 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में इन मजदूरों ने अपने मिल मालिकों के खिलाफ आंदोलन करते हुए औपनिवेशिक शासन का विरोध किया। इससे राष्ट्रीय आंदोलन को बल मिला। लगभग सभी जगहों के मजदूर दलों ने औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की आर्थिक मांगों को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के साथ जोड़ने की कोशीश की ।

स्वंतत्रता प्राप्ति के साथ भारत का विभाजन हो गया और इसके तुरत बाद भारत में बेरोजगारी बढ़ गयी । श्रमिकों को यह उम्मीद थी कि स्वंतत्रता प्राप्ति के बाद उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो जायेगी, परन्तु ऐसा नहीं हो सका और मजदूर संगठन तीन भागों में बट गया । इंडियन नेशनल ट्रेड युनियन कांग्रेस (INTUC), हिन्द मजदूर संघ (H.M.S.) और युनाइटेड ट्रेड युनियन कांग्रेस (UTUC.)

मजदूरों की आजीविका एवं उनके अधिकारों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने सन् 1948 ई० में न्युनतम मजदूरी कानून (Minimum Wages Act) पारित किया, जिसके द्वारा कुछ उद्योगों में मजदूरी की दरें निश्चित की गई। प्रथम पंचवर्षीय योजना में इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया तथा दूसरी योजना में तो यहाँ तक कहा गया कि न्युनतम मजदूरी उनकी ऐसी होनी चाहिए जिससे मजदूर केवल अपना ही गुजारा न कर सके, बल्कि इससे कुछ और अधिक हो, ताकि वह अपनी कुशलता को भी बनाये रख सके । तीसरी योजना में मजदूरी बोर्ड स्थापित किया गया और बोनस देने के लिए बोनस आयोग की भी नियुक्ति हुई ।

मजदूरों की स्थिति में सुधार हेतु सन् 1962 में केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय श्रम आयोग स्थापित किया । इसके द्वारा मजदूरों को रोजगार उपलब्ध कराया गया तथा उनकी मजदूरी को सुध ारने का प्रयास किया गया ।

इस तरह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने उद्योग में लगे मजदूरों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कई कदम उठाये हैं, चूकि औद्योगीकरण के दौर में पूँजीपतियों द्वारा उनका शोषण किया जाता था ।

कुटीर उद्योग का महत्व एवं उसकी उपयोगिता

यद्धपि औद्योगीकरण की प्रक्रिया ने भारत के कुटीर उद्योग को काफी क्षति पहुँचाई, मजदूरों की आजीविका को प्रभावित किया, परन्तु इस विषम एवं विपरित परिस्थिति में भी गाँवों एवं कस्बों में यह उद्योग पुष्पित एवं पल्लवित होता रहा तथा जन साधारण को लाभ पहुँचाता रहा । राष्ट्रीय आन्दोलन, विशेषकर स्वदेशी आन्दोलन के समय इस उद्योग की अग्रणी भूमिका रही। अतः इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। महात्मा गाँधी ने कहा था कि लघु एवं कुटीर उद्योग भारतीय सामाजिक दशा के अनुकूल हैं। ये राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाहित करते हैं। कुटीर उद्योग उपभोक्ता वस्तुओं, अत्यधिक संख्या को रोजगार तथा राष्ट्रीय आय का अत्यधिक समान वितरण सुनिश्चित करते हैं। तीव्र औद्योगीकरण के प्रक्रिया में लघु उद्योगों ने सिद्ध किया कि वे बहुत तरीके से फायदेमन्द होते हैं। सामाजिक, आर्थिक व तत्सम्बन्धी मुद्धों का समाधान इन्हीं उद्योगों से होता है। इसके ठीक से कार्यकरण पर तीव्र आर्थिक विकास निर्भर करता है। यह समाजिक, आर्थिक प्रगति व संतुलित क्षेत्रवार विकास के लिए एक शक्तिशाली औजार है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन उद्योगों की प्रगति बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर को बढ़ाती है, कौशल में वृद्धि, उद्यमिता में वृद्धि तथा उपयुक्त तकनीक का बेहतर प्रयोग सुनिश्चत करती है। इसको प्रारम्भ करने में बहुत ही कम पूँजी की आवश्यकता होती है। ये उत्पादकीय क्षमता के फैलाव पर ध्यान देते है, जबकि औद्योगीकरण में उत्पादन शक्ति केवल कुछ हाथों में रहती है। कुटीर उद्योग जनसंख्या के बड़े शहरों में प्रवाह को रोकता है ।

आधुनिक औद्योगिक प्रणाली के विकास के पूर्व भारतीय निर्मित वस्तुओं का विश्व व्यापी बाजार था । भारतीय मलमल और छींट तथा सूती वस्त्रों की मांग पूरे विश्व में होती थी । भारतीय उद्योग न केवल स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए माल उपलब्ध कराते थे, बल्कि वे निर्मित वस्तुओं का निर्यात भी करते थे । भारत से निर्यात के मुख्य वस्तुओं में रूई तथा सिल्क, छींट,रगारंग के वर्तन तथा उनी कपड़े  शामिल हैं ।

ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग भारत में हाथों से बनी हुई वस्तुओं को ज्यादा तरजीह देते थे । हाथों से बने महीन धागों के कपड़े, तसर सिल्क, बनारसी तथा बालुचेरी साड़ियाँ तथा बुने हुए बॉडर वाली साड़ियाँ एवं मद्रास की प्रसिद्ध लुंगियों की मांग ब्रिटेन के उच्च वर्गों में अधिक थी । मशीनों द्वारा इसकी नकल नहीं की जा सकती थी और विशेष बात तो यह थी कि इस पर अकाल और बेरोजगारी का भी असर नहीं होता था क्योंकि यह महंगी होती थी और सिर्फ उच्च वर्ग के द्वारा विदेशों में उपयोग में लायी जाती थीं ।

अंग्रेजों के साथ राजनैतिक सम्बन्ध कायम होने, और औद्यौगीकरण के कारण भारत का कुटीर उद्योग एवं हस्त शिल्प उद्योग का पतन हुआ। चूंकि ब्रिटिश सरकार की नीति भारत में विदेशी निर्मित वस्तुओं का आयात एवं भारत के कच्चा माल के निर्यात को प्रोत्साहन देना था, इसलिए ग्रामीण उद्योग पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। फिर भी राष्ट्रीय आन्दोलन, विशेषकर स्वदेशी आन्दोलन के समय खादी वस्त्रों की मांग ने कुटीर उद्योग को बढ़ावा दिया। दो विश्वयुद्धों के बीच कुटीर उद्योग द्वारा उत्पादित वस्तुओं की मांग में वृद्धि हुई और कारखानों के साथ कुटीर उद्योग भी क्षेत्रीय जगहों पर उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे ।

सन् 1947 ई० में स्वंतत्रता प्राप्ति के बाद कुटीर उद्योग की उपयोगिता और उसके विकास हेतु भारत सरकार की नीतियों में परिवर्तन हुआ । 6 अप्रैल 1948 की औद्योगिक नीति के द्वारा लघु एवं कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन दिया गया। सन् 1952-53 ई० में पाँच बोर्ड बनाये गए, जो हथकरघा, सिल्क, खादी, नारियल की जटा तथा ग्रामीण उद्योग हेतु थे। सन् 1956 एवं 1977 ई० के औद्योगिक नीति में इनके प्रोत्साहन की बात कही गई। आगे चलकर 23 जुलाई 1980 को औद्योगिक नीति घोषणापत्र जारी किया गया, जिसमें कृषि आधारित उद्योगों की बात कही गयी एवं लघु उद्योगों की सीमा भी बढ़ायी गई ।

इस तरह हम देखते हैं कि स्वंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने जहाँ एक तरफ कुटीर उद्योग को बढ़ावा दिया वहीं दूसरी तरफ औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी आगे बढ़ने लगी। अब रसायन एवं बिजली जैसे औद्योगिक क्षेत्रों का विस्तार होने लगा तथा विद्युत इलेक्ट्रोनिक एवं स्वचालित मशीनों का प्रयोग किया जाने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटेन की औद्योगिक नीति ने जिस तरह औपनिवेशिक शोषण की शुरूआत की, भारत में राष्ट्रवाद की नींव उसका प्रतिफल था। यही कारण था कि जब महात्मा गाँधी ने असहयोग आन्दोलन की शुरूआत की तो राष्ट्रवादियों के साथ अहमदाबाद एवं खेड़ा मिल के मजदूरों ने उनका साथ दिया। महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार एवं स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने पर बल डालते हुए कुटीर उद्योग को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया तथा उपनिवेशवाद के खिलाफ उसका प्रयोग किया। पूरे भारत के मिलों में काम करने वाले मजदूरों ने भारत छोड़ों आन्दोलन में उनका साथ दिया । अतः औद्योगीकरण ने, जिसकी शुरूआत एक आर्थिक प्रक्रिया के तहत हुई थी, भारत में राजनैतिक एवं सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। सन् 1950 के बाद सम्पूर्ण विश्व में अग्रणी औद्योगिक शक्ति समझा जाने वाला ब्रिटेन अपने प्रथम स्थान से वंचित हो गया और अमेरिका एवं जर्मनी जैसे देश औद्योगिक विकास की दृष्टि से ब्रिटेन से काफी आगे निकल गए ।

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