bihar board class 9 chapter 5 political science notes | संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ
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संसदीय लोकतंत्र में तीन महत्वपूर्ण संस्थाएँ हैं-
- विधायिका
- कार्यपालिका
- न्यायपालिका
विधायिका: शासकीय संस्थाओं में विधायिका का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है| भारत में भी एक संघीय विधायिका है| इसे संसद कहा जाता है|
भारतीय संसद के दो सदन है-
(i) लोकसभा
(ii) राज्यसभा
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लोकसभा:
(i) यह संसद का प्रथम सदन है|
(ii) इसे निम्न सदन भी कहा जाता है|
(iii) लोकसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष ढंग से होता है|
(iv) यह भारतीय जनता की प्रतिनिधि सभा है|
(v) लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 तक हो सकती है|
(vi) इसमे वर्तमान में 524 सदस्य विभ्भिन राज्यों का और 19 सदस्य केन्द्र्शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं|
(vii) लोकसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नही मिलने पर राष्ट्रपति दो आंग्ल भारतीयों को लोकसभा का सदस्य मनोनीत करता है|
(viii) यह भंग हो सकता है|
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लोकसभा के सदस्य बनने की योग्यता:
(i) भारत का नागरिक होना चाहिए|
(ii) उम्र कम-से-कम 25 वर्ष होना चाहिए|
(iii) किसी लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए|
(iv) पागल या दिवालिया नहीं होना चाहिए|
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लोकसभा के अधिकार एवं कार्य– लोकसभा को कई प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं। इसके अधिकार और कार्य इस प्रकार है-
- कानून बनाना- लोकसभा का प्रमुख कार्य देश के लिए कानून बनाना है। उसे संघ सूची तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। आवश्यकता पड़ने पर वह राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बनाती है। कानून बनाने के लिए विधेयक के रूप में प्रस्ताव लोकसभा के सामने उपस्थित किया जाता है। लोकसभा उसे पास कर राज्यसभा के पास भेज देती है। दोनों सदनों से पास हो जाने पर उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने के बाद विधेयक कानून बन जाता है।
- कार्यपालिका पर नियंत्रण– लोकसभा कार्यपालिका पर भी नियंत्रण रखती है। मंत्रिपरिषद के सदस्य अपने कामों के लिए लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। लोकसभा के सदस्यों को मंत्रियों से प्रश्न पूछने का अधिकार होता है। लोकसभा ‘काम रोको’ और ‘कटौती’ का प्रस्ताव पास कर सकती है। यह अविश्वास का प्रस्ताव पास कर मंत्रिपरिषद को भंग कर सकती है। 1979 में मोरारजी देसाई और चौधरी चंरण सिंह के मंत्रिमंडलों के विरुद्ध अविश्वास के प्रस्ताव रखे गए थे, परंतु प्रस्ताव पर विचार के पूर्व के ही दोनों ने त्यागपत्र दे दिया था। 17 अप्रैल 1999 को लोकसभा में प्रस्तुत अविश्वास-प्रस्ताव में एक मत से पराजित होने के बाद वाजपेयी सरकार को त्यागपत्र देना पड़ा था। 18 अगस्त 2003 को भी वाजपेयी सरकार के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव पेश किया गया, परंतु 20 अगस्त 2003 को जब मतदान कराया गया तो अविश्वास-प्रस्ताव 126 मतों से गिर गया।
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- बजट पास करने का अधिक्रार- देश का बजट भी लोकसभा के सामने ही उपस्थित किया जाता है। बजट पास कर यह तय कर लिया जाता है कि किस विभाग को कितना खर्च करना है। लोकसभा की स्वीकृति के बाद ही कोई कर लगाया जा सकता है। 4. संविधान में संशोधन करना- संविधान में संशोधन किया जा सकता है, किंतु इसपर लोकसभा की स्वीकृति आवश्यक है। संसद के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहमत से पास होने पर ही संविधान में संशोधन हो सकता है।
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- निर्वाचन में भाग लेना- कई पदाधिकारियों के निर्वाचन में लोकसभा के सदस्य भाग लेते हैं। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा के अध्यक्ष, लोकसभा के उपाध्यक्ष इत्यादि के निर्वाचनमें लोकसभा के सदस्य भाग लेते हैं। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति औरन्यायाधीशों को हटाने से संबद्ध प्रस्ताव भी लोकसभा पास कर सकती है।
लोकसभा के कार्यों की सफलता पर ही भारत के लोकतंत्र का भविष्य निर्भर है। भारत में संसदीय सरकार होने के कारण यहॉँ लोकसभा का विशेष महत्त्व है।
राज्यसभा:
(i) यह संसद का दूसरा सदन है|
(ii) इसे उच्च सदन भी कहा जाता है|
(iii) राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष ढंग से होता है|
(iv) यह राज्यों की प्रतिनिधित्व करती है|
(v) राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है|
(vi) इसमे अधिक-से-अधिक 238 सदस्य निर्वाचित हो सकते है|
(vii) राज्यसभा में राष्ट्रपति 12 सदस्यों को मनोनीत करता है|
(viii) यह भंग नहीं हो सकता है|
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राज्यसभा के सदस्य बनने की योग्यता:
(i) भारत का नागरिक होना चाहिए|
(ii) उम्र कम-से-कम 30 वर्ष होना चाहिए|
(iii) किसी लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए|
(iv) पागल या दिवालिया नहीं होना चाहिए|
राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन- राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष ढंग से होता है। विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य इन्हें निर्वाचित करते हैं। राष्ट्रपंति भी ऐसे सदस्यों को मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य विज्ञान, कला और समाजसेवा के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त रहती है।
कार्यकाल- यह एक स्थायी सदन है। इसके सदस्य छह वर्ष के लए निर्वाचित होते हैं। प्रत्येक दो वर्ष पर एक-तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते हैं। उनकी जगह नए सदस्यों का निर्वाचन होता है। स्थायी सदन होने के कारण राष्ट्रपति राज्यसभा को विघटित नहीं कर सकता है।
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पदाधिकारी- भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। इसका एक उपसभापति भी होता है। सदन की कार्यवाही चलाना सभापति काही काम है। उपराष्ट्रपति जब कार्यकारी राष्ट्रपति के पद पर रहता है तब वह राज्यसभा के सभापति का काम नहीं करता। उपसभापति ही तब राज्यसभा की बैठक का संचालन करता है।
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वेतन एवं भत्ते- 2010 के वेतन एवं भत्ते संशोधन-संबंधी अधिनियम के अनुसार राज्यसभा के सदस्यों को 50,000 रूपये मासिक वेतन तथा बैठक के समय 2,000 रुपये प्रतिदिन भत्ता मिलता है।
सभापति के कार्य- राज्यसभा की बैठकों का सभापतित्व करना इसका मुख्य कार्य है। यदि पक्ष और विपक्ष में बराबर मत आ जाते हैं तो सभापति अपना निर्णायक मत देता है। सभापति सदस्यों को भाषण देने की अनुमति देता है। वह सदन में शांति और अनुशासन बनाए रखता है।
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राज्यसभा के अधिकार एवं कार्यं– लोकसभा की तुलना में राज्यसभा के अधिकार सीमित हैं। इसकेअधिकार एवं कार्य इस प्रकार हैं-
- कानून बनाना- कानून बनाने में राज्यसभा भी भाग लेती है। सभी विधेयक राज्यसभा के पास आते हैं। दोनों सदनों द्वारा पास होने के बाद ही विधेयक पास माना जाता है। यदि किसी विधेयक पर दोनों सदनों में मतभेद हो तो दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है। उदाहरण के लिए, बैंक सेवा आयोग (निरसन) विधेयक 16 मईं 1978 को संयुक्त बैठक में पारित हुआ। लोकसभा के सदस्यों की संख्या अधिक रहने के कारण लोकसभा की ही बात रहती है। राज्यसभा विधेयक को कुछ दिन रोक सकती है, लेकिन विधेयक पास होने में बाधक नहीं हो सकती।
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- कार्यंपालिका पर नियंत्रण- मंत्रियों से प्रश्न पूछने, कटौती का प्रस्ताव और कार्य स्थगन का प्रस्ताव उपस्थित करने का अधिकार राज्यसभा के सदस्यों को भी है। परंतु, राज्यसभा मंत्रिपरिषद के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव नहीं ला सकती। राज्यसभा के सदस्य भी मंत्रिपरिषद के सदस्य हो सकते हैं।
- धन-विधेयक पास करना- विधेयक दो प्रकार के होते हैं। रुपये-पैसे से संबद्ध विधेयक को धन-विधेयक कहा जाता है। धन-विधेयक के मामले में राज्यसभा के अधिकार नहीं के बराबर हैं। धन-विधेयक पहले लोकसभा में पेश किया जाता है। फिर, उसे राज्यसभा के पास भेजा जाता है। राज्यसभा उसे 14 दिनों से अधिक नहीं रोक मकती। वर थरन-विथेयक पाम क गंणाधन क साथ लाकममा को लोटा देती है। मंगधन को मानना यान मानना लोकसभा की इच्छा पर निर्भर है। पहली बार 27 जुलाई 1977 का राज्यसभा ने संशोधन के माथ धन-वधेयक लीयया था। परन, लोकसभा ने उमे नही माना। बिना संणोचन क ही उमन 2 अगम 1977 को विचेयक पास कर दिया।
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- संविधान में संशोधन करना- राज्यसभा को संविधान में संशोधन करने का भी अधिकार प्राप्त है। संसद के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत से पास होने पर ही संविधान में संशोधन हो सकता है। राज्यसभा, लोकसभा द्वारा पारित संशोधन-विधेयक को अस्वीकृत कर सकती है या उसमें आवश्यक संशोधन कर सकतो है। 44वें संशोधन-विधेयक की पाँच धाराओं को राज्यसभा ने अस्वोकृत कर वापस लौटा दिया था। इस प्रकार, संशोधन के क्षेत्र में इसे लोकसभा के बराबर अधिकार प्राप्त है।
- अन्य अधिकार- अन्य क्षेत्रों में राज्यसभा को लोकसभा की तरह ही अधिकार प्राप्त हैं। राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में राज्यसभा के नर्वांचित सदस्य भी भांग लेते हैं। राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति या न्यायाधीशों को हटाने से संबद्ध प्रस्ताव में उसके अधिकार लोकसभा की तरह ही हैं।
राज्यसभा को एक शक्तिहीन सदन भी माना जाता है। बहुत-से विद्वानों ने इसके विपक्ष में तर्क देते हुए इसे समाप्त कर देने की सिफारिश की है, परंतु इसे एक उपयागी संस्था माना गया है। अतः, अभी तक इसका अस्तित्व बना हुआ है।
कानून निर्माण की प्रक्रिया-
विधेयक– संसद का प्रमुख कार्य कानून बनाना है। किसी विषय पर कानून बनाने के लिए प्रस्ताव तैयार किया जाता है, जिसे विधेयक कहते हैं।
विधेयक दो प्रकार के होते हैं-
- साधारण विधेयक
- वित्त-विधेयक (धन-विधेयक)
साधारण विधेयक का कानून बनन के सिलसिले में पाँच स्तरों से गुजरना पड़ता है-
(i) प्रथम वाचन- साधारण विधेयक संसद के दोनों सदनों में से किसी में भी पहले उपस्थित किया जा सकता है। विधेयक उपस्थित करनेवाला सदस्य उस विधेयक का नाम या शीर्षक पढ़ देता है। वह विधेयक की मुख्य-मुख्य बातों के संबंध में एक भाषण देता है। यह विधेयक का प्रथम वाचन कहलाता है।
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(i) द्वितीय वाचन-एक निश्चित तिथि को विधेयक का द्वितीय वाचन होता है। उस दिन विधेयक के संबंध में यह विचार होता है कि उसे प्रवर समिति के पास विचार के लिए भेजा जाए, जनमत जानने के लिए प्रसारित किया जाए या उसपर तुरत विचार कर लिया जाए। इसमें से किसीं एक प्रस्ताव के उपस्थित होने पर विधेयक पर विस्तार से वादविवाद होता है। यह द्वितीय वाचन कहलाता है।
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(iii) समिति स्तर- जब विधेयक विचार के लिए प्रवर समिति के पास भेजा जाता है तब उसे समिति स्तर कहते हैं। प्रवर समिति विधेयक के प्रत्येक पक्ष पर विचार करती है और आवश्यक संशोधन का सझाव देती है।
(iv) प्रतिवेदन स्तर- प्रवर समिति जब अपना प्रतिवेदन संसद के किसी सदन के पास भेजती है तो इसे प्रतिवेदन स्तर कहते हैं। तब सदन में विधेयक के प्रत्यक पक्ष पर विचार किया जाता है। समर्थक अथवा विरोधी अपना-अपना मत या संशोधन पेश करते हैं। विधेयक संशोधन के साथ अथवा बिना संशोधन के पारित हो जाता है।
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(v) तृतीय वाचन- ततीय वाचन के समय विधेयक में कोई परिवर्तन नहीं किया जाता। सिर्फ भाषा-संबंधी अशुद्धियों को शुद्ध कर लिया जाता है। इस वाचन के समय विधेयक पर मत लिया जाता है और विधेयक पारित समझा जाता है।
विधेयक दूसरे सदन में- जब विधेयक एक सदन से पास हो जाता है तब उसे दूसरे सदन में पारित होने के लिए भेज दिया जाता है। दूसरे सदन में भी विधेयक को उनहीं पाँच स्तरों से ग्जरना पड़ता है। किसी विधेयक पर दोनों सदनों में मतभेद होने पर दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है। बैठक में बहमत से विधेयक पारित किया जाता है।
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राष्ट्रपति की स्वीकृति- दोनों सदनों से विधेयक पारित हो जाने के बाद उसे राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद विधेयक कानून बन जाता है।
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धन-विधेयक- धन-विधेयक वह विधेयक है जिसका संबंध कर, ऋण, सरकारी हिसाब में धन जमा करने या उनके खर्च से होता है। धन-विधेयक पहले लोकसभा में ही उपस्थित किया जा सकता है। लोकसभा से पारित होने के बाद उसे राज्यसभा में भेजा जाता है। राज्यसभा 14 दिनों के अंदर अपने सुझावों के साथ उसे लोकसभा के पास लौटा देती है। राज्यसभा की सिफारिशों को मानना अथवा न मानना लोकसभा पर निर्भर करता है। यदि राज्यसभा 14 दिनों के अंदर धन-विधेयक को नहीं लौटाती तो वह उसी रूप में पास समझा जाता है जिस रूप में लोकसभा ने पास किया था। इसके बाद धन-विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति को धन-विधेयक पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है।
Political Science All Chapter Solutions-
Chapter – 1. लोकतंत्र का क्रमिक विकास
Chapter – 2 लोकतंत्र क्या और क्यों?
Chapter- 5. संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ
Chapter – 6. लोकतांत्रिक अधिकार
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